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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कहा था न

कहा था न

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कहा था न

दीये मत बुझाओ,

तुमने सुना नहीं

भई आदमी रहमदिल हो सकता है

प्रकृति नहीं

और प्रकृति

आदमी को नियंत्रित करने में लगी हुयी है

दोनों में आपस का अद्भुत प्रेम है

कभी आदमी प्रकृतिमय हो जाता है

कभी प्रकृति आदमीमय हो जाती है

अभीष्ट है

प्रकृति का आदमी बन जाना

और अब तो एक आदमी ने

आदमी से कह दिया है

हम मिलें न मिलें

पर तुम मेरे दिल में रहते हो

तुम्हारा जिक्र भर होने से

खुशी से विभोर हो उठता हूँ

इतने भर से प्रकृति को

विश्वास हो चला है

अपने अदमीमय होने का

तुम्हें तो ये भी पता नहीं है

कि प्रकृति आदमी पर

कितना निर्भर है

उतना ही जितना प्रकृति पर आदमी

आदमी यह भूल बैठा है

और प्रकृति भूल नहीं सकती 

याद दिलाती रहती है

और याद दिलाने के सिलसिले में

कभी कभी आदमी बन जाती है।


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