कभी हमसे भी पूछो
कभी हमसे भी पूछो
पर्वत पहाड़ों नदियों की बातें
झिलमिल सितारों से
जगमग सी रातें।
सुहाने तराने तुम सारे गाते
कभी हमसे भी पूछो
कहाँ हैं हम।
जी करता जहां, वहाँ चले जाते
बूँद देते नहीं, खुद गगरी लुटाते
सबल हो, कहाँ गिरे को उठाते
कभी हमसे भी पूछो, कहाँ हैं हम।
बीच फूस की झोपड़ी, तुम्हारी हवेली
पाँव जमीं पे नहीं, आसमाँ में उठाते
कोई अड़चन में हो, तुम देख चलते जाते
कभी हमसे भी पूछो, कहाँ हैं हम।
है समृद्धि तो सारी, कुछ मुट्ठी में कैद
ज़रूरतमंद से, नज़रें चुराते
कुछ बुरा नहीं !
जो अपनी महफ़िल सजाते
पर कभी हमसे भी तो पूछो
कहाँ हैं हम।
चलो इतने तक, तो ठीक है
मांगी नहीं, कोई भीख है।
हमें जितना मिला
उतने में जिये जाते।
पर तुम्हारी, ये कौन सी
आदत है वाहियात।
करते तो कुछ नहीं, पर
खूब बातें बनाते।
सबल हो पर, कहाँ गिरे को उठाते
चलते-चलते आँखों से
कुछ ऐसे घूर जाते
की ये जमीं-आसमाँ
हों जागीर तुम्हारी !
और यहां हम कुछ नहीं
बस धूल फांकने आते।
लेके जाना कुछ नहीं
शायद भूल गए हो
जाने पढ़ा पाठ कौन सा
किस स्कूल गए हो !
जो होती इतनी भी
तुममें समझदारी
तो हमें भी तुम
जरा सा समझ पाते !
जो आता नहीं
किसी को गले लगाना
तो उठते हुए को
गिरा के क्यों हो जाते।
सबल हो पर, नहीं गिरे को उठाते
देखो, हो कहाँ तुम ! कहाँ हम।
