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Dr. Anu Somayajula

Abstract

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Dr. Anu Somayajula

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कब सोचा है हमने

कब सोचा है हमने

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प्रिय डायरी,


महाप्राण निरालाजी की कालजयी कविता है-

‘वह आता, दो टूक कलेजे के करता...

किंतु-

आजकल वह ढूंढ़े नहीं मिलता;

कभी बैठा करता था

मंदिर, मस्जिद की सीढ़ी पर,

कभी पेड़ के नीचे,

या भटकता था सड़कों पर;

अपने में गुम

उसे हमने हमेशा देखा- अनदेखा ही किया;

पसरे हुए हाथों को झटक

चलते बने;

मुड़ते पीछे तो देख पाते-

याचना भरी गंदलाई आंखें रेंगती चली आ रही हैं

पीछे- पीछे;

शायद हमारी परछाईं ही हाथ आए,

कुछ मिल जाए!


छलनी सी पुरानी टाट की दीवारों में,

फटी, बदहाल चादर के टुकड़ों को सी कर बनी

छत को ओढ़कर, जो सोया है-

इसके इस घर को

कब हमने देखा है;

जो इतना भी नहीं जुटा सकते

रहते हैं- किसी पेड़ की छांव मे

या किसी पुलिया के नीचे

कभी आसमान की चादर ताने,

तो कभी-

किसी दीवार की ओट में;

कब जाना है हमने-

सारा जहां हमारा कहते इस जीवन को!

भुखमरी हो, बीमारी हो

या महामारी

यह जन्मजात यायावर

अब और क्या विस्थापित होगा?


बेशर्म है यह, कि मांगता है;

अध ढंका है-

कि पहना हुआ चीथड़ा छीजता ही जाता है;

लाज नहीं ढांपी जाती

आंचल, झोली क्या ये फैलाएगा,

क़िस्मत को-

मुट्ठी में बंद करेगा, हाथ नहीं पसारेगा

तो फिर- 

खरा या खोटा सिक्का कैसे पाएगा

घर पर- 

बाट जोहती आंखों में तैरते प्रश्नों को

कैसे झेलेगा!

कब सोचा है हमने!

अब वह नहीं आता,

कहां होगा, होगा भी या नहीं-

कब सोचा है हमने!!

हमारा ‘कलेजा दो टूक’ कभी होगा भी या नहीं-

कब सोचा है हमने!!!


                            




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