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अजय गुप्ता

Abstract

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अजय गुप्ता

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काल चक्र

काल चक्र

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मेरे बाग में निकली,

घास जैसी हरी पत्तियां

मैने काट दी जंगली जान के,

वो फिर निकल आयी मिट्टी फोड़ के।


बारिश की पहली फुहार में,

पत्तियों के बीच कलियां फूटआई,

और चिटक पड़े बसंती पीत फूल,

जैसे आए हो वर्षा का उत्सव मनाने।


मैं उन्हें रोपित करता तो मुरझा जाती,

फिर किसी कोने पर खुद निकल आती

मैंने स्वीकार कर लिया उसी रूप में

जैसी भी थी वो हरी चमकदार पत्तियां।


अब बारिश में निकलती हैं कहीं भी,

पीत फूल से सजती हैं,उत्सव मनाती हैं

और सो जाती है धरती में बीज बन कर

पुनः प्रस्फुटित हो, उत्सव मानने को।


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