जंजीरें अभी बाकी हैं!!
जंजीरें अभी बाकी हैं!!
धर्म जाति और रीत प्रीत की
जंजीरों में बँध कर रह गये।
मानवता की समझी न कीमत
हर दुख को बस यूँ ही सह गये।
आजादी तो मिल गई लेकिन
आजाद होना अभी बाकी है।
मिट जायें सब कुरीतियाँ
तो ही हम बेबाकी है।
जकड़न बढ़ती जा रही दिन पर दिन
क्योंकि जंजीरें अभी बाकी हैं।
आत्मा पर कसती जा रही हैं बंधन
और यही तो कुटिलों की चालाकी है।
तोड़ना है वो बेड़ियाँ
जो इस जमाने ने बाँध रखी है।
क्योंकि जमाने की यही बेड़ियाँ
हमें लाचार बना रखी हैं।
हाथ की इन लकीरों में
मंजर ढले हैं तकरीरें के।
लेकिन हम तो आज भी कैद हैं
रवायत की जंजीरों में।
इतना ढीठ होना भी बड़ी टेढ़ी खीर है,
दौड़े जा रहे हैं पर पाँवों में पड़ी जंजीर है।
अपने आप को जंजीरों में न बाँध,
अपने बढ़ते कदमों को यूँ न रोक।
तोड़ के सारी हथकड़ियों को,
सधे कदम लिये चलना है।
हर वो बाधा रोक रही जो,
दृढ़संकल्प से अपने पार उसे अब करना है।
