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Dr. Anu Somayajula

Abstract

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Dr. Anu Somayajula

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ज़ंजीर

ज़ंजीर

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कड़ियां बनती हैं

गर्म लोहे को

पीट - पीटकर, तोड़ मरोड़ कर।

कड़ी से कड़ी जोड़ते

पतली, मोटी

नाज़ुक, तगड़ी,

ज़ंजीर बनाते हाथों को

देखा है !


सिर्फ़ चेहरा नहीं,

समूचा अस्तित्व तपता है

उस धौंकनी सा

जिसमें लोहे की सलाख पिघलने की

सीमा तक

तापी जाती है।

एक आकार, एक आयाम देने को हथौड़े से

बार – बार पीटी जाती है।

उस चेहरे की

तपिश को,

हाथों के फफोलों को

देखा है !


आग

पी चुकी हैं आंखें,

धुआं

सोख चुकी हैं सांसें;

अचक अचानक

निर्जीव पड़ी ज़ंजीर पर

आप उग आईं

शाखाएं, प्रशाखाएं,

चल पड़ी ज़ंजीर

फ़िर आंगन की सीमा तोड़ कर।

उन डरी, सहमी आंखों को

थमती सांसों को

देखा है !


निकल पड़ी है ज़ंजीर

अपने सफ़र पर,

गली, गांव, देश, और विश्व को

बंधक बनाती;

आदमी को,

आदमीयत को,

समाज को,

संस्कृति को,

बांध अपने लौह पाश में

अट्टहास करती, उंगलियों पर नचाती।

इस सर्वहारा

आक्रामक ज़ंजीर को

देखा है !


कभी, बनी है बेड़ी उठते पांवों की,

कभी हथकड़ी

आसमान को छूते हाथों की

घोंटा है दम

हलक से निकलती चीखों का,

ताले डाले हैं

कभी उठती आवाज़ों पर

पर्दे डाले हैं

आंखों में पलते सपनों पर।

आदिम सोच सी

इस ज़ंजीर की कड़ियों को तोड़ते

लोहू लुहान हाथों को

देखा है !


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