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Shayra dr. Zeenat ahsaan

Abstract

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Shayra dr. Zeenat ahsaan

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जमापूंजी

जमापूंजी

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जब कभी उसे मिलती थी तनख्वाह

बहुत खुश ही जाती थी वो

हमेशा छुपाकर रखती थी कुछ पैसे

आटे के डब्बे में,

अलमारी के कपड़ों के


नीचे या फिर किसी पुराने टंगे

कोट की जेब में या अपनी किताबों के बीच

जबकि बहुत ज़रूरी होता था

खरीदना

कभी रंग बिरंगी चूड़ियां, 


कभी पिक्चर की टिकट,

कभी गोलगप्पे, कभी साड़ी

 पर हो जाती थी वो अडिग,

मोड़ लेती थी मुंह और दबा लेती थी

अपनी अंतर्मन की इच्छा और

बन जाती थी वह एक कुशल अर्थशास्त्री


पर आज उसने पलट दिया है 

आटे का डब्बा, झाड़ दिए हैं कपड़े,

झटक दिया है कोट, और

उलट डाली हैं सारी किताबें और

दे दी है जिंदगी की सारी जमा पूंजी


कोरोना से लड़ रहे जां बाज़ सिपाहियों को

जिन्होंने लगा दी है जान

अपनी देश के लिए इंसानियत की राह पर।


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