जिंदगी निकल गयी
जिंदगी निकल गयी
उलझनों के जाल बुनते गये,
ना जाने कितने अनसुलझे ख्वाव चुनते गये।
जिंदगी निकल गयी, हम यू ही घुटते गये।
सपने सोने नहीं देते,हौसले रोने नहीं देते।
कर ना गुजरो जब तक कुछ नया,
तब तक ये मृत्युशैया भी बेकार है।
ना जाने कितने अनसुलझे ख्वाव बुनते गये,
जिंदगी निकल गयी हम यू ही घुटते गये।
बचपन मे ना जाने कैसी पुकार थी,
रोज बनती थी नित नई आशाएं,अजब हुंकार थी।
अब तो आपाधापी ही ऐसी है जीने की,
कि अपनी गूंजे भी सुनाई नहीं देती।
चिल्लाते है रोज खुद में,
मगर कम्बखत शोर ऐसा है,
कि अपनी आहे भी दिखायी नहीं देती।
ख्वाहिशे शायद अभी भी बाकी है,
>मगर मन के कोने में दबी-दबी सी।
जिंदा रखते हैं खुद को रोज मगर,
जीने की उम्मीदे दिखायी नहीं देती।
ऐसी जंग चली है हर ओर,
उम्मीदों का कारवां दिखता नहीं है।
पिंजरा है ये ऐसा जो टूटता नहीं है,
आफतों का जाल छूटता नहीं है।
हर रोज एक ही सवाल है,
कि जिंदगी है क्या एक नया बवाल ।
घुटते घुटते जी रहे हैं सभी,
जहर है ऐसा कि धीरे-धीरे पी रहे हैं।
जिंदगी निकल गयी, हम यू ही घुटते गये।
मुख पर एक ही सवाल है,
कि कब आसान होगी जिंदगी?
बस इसी उम्मीद में जी रहे हैं सभी।