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Shah Talib Ahmed

Classics

5.0  

Shah Talib Ahmed

Classics

ज़िन्दगी {exam _ इम्तहान}

ज़िन्दगी {exam _ इम्तहान}

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प्यार और इश्क़ का बखान लिए बैठा हूँ।

ज़िन्दगी को रोज़ एक इम्तहान दिये बैठा हूँ।

मेरे शहर के लोग मेरे दीदार के तालिब हैं।

मैं अंजान शहर में नई पहचान लिए बैठा हूँ।


गिरते जा रहे हैं कुछ अपने ही मेरी नज़र से

मैं उनके सामने अंजान बना बैठा हूॅं।

वो जहाँ तक पहुँचना चाहते,

मैं छोड़े हुए वो मुकाम बैठा हूँ।


अपने दिल में बुजुर्गों के अहकाम लिये बैठा हूँ

अपनों की ख्वाहिश पूरी करने में

ख़ुद से शिकायतें तमाम लिये बैठा हूँ।


मेरी क़ामयाबी उनके लब की हँसी है,

उनसे बस यही एक ईनाम लिये बैठा हूँ।

कल फुर्सत से गुज़र सके उनके साथ इसलिये आज बहुत से काम लिये बैठा हूँ।


मेरे क़लम से इश्क़ और मोहब्बत की बातें सुनके

मुझपे शक़ करने वालों के होश उड जायेंगे।

अगर असलियत लिख डाली तो,

अंदर इतना तूफान लिये बैठा हूॅं।।


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