ज़िन्दगी और मौत
ज़िन्दगी और मौत
क़ातिल बन कर के ज़माने के, ऐसे बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं है,
उनकी रूह हमारी तलाश में दर ब दर फिरती है, जैसे मर के भी ज़िन्दा है।
अरमानों का क़त्ल सरेआम करके भी हम पे कोई इल्ज़ाम नहीं है,
हम पर कितने भी कोई मुकद्दमे चलाए, बेगुनाह बाइज्ज़त भी शर्मिन्दा हैं।
जीने की कोई आरज़ू नहीं छोड़ी उन्होंने, मग़र ज़िन्दगी के पास भी नहीं हैं,
बुरा कुछ नहीं किया किसी का, फिर भी मौत के बाद भी मिली निन्दा है।
हर बार तलाशते हैं ज़िन्दगी की राहें वो,मग़र जीने की ख़्वाहिश ही नहीं है,
ज़िन्दगी के इतने ज़्यादा तज़ुर्बे हैं कि हर बार ही वो चुनिन्दा हैं।
ज़िन्दगी की राह पे चलते मौत के पास हो के भी मौत की फरियाद करते नही हैं,
आज़ाद हो चुके हैं दुनिया के बन्धनों से, मग़र फिर भी सामान का पुलिन्दा है।
तुझे कैंसे समझाएँ ऐ ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के सफ़र का अन्जाम ज़िन्दगी नहीं है,
ज़िन्दगी और मौत भी तो बस आखिर किसी मालिक का ही तो कारिन्दा है।