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Pradeepti Sharma

Romance

4  

Pradeepti Sharma

Romance

जीवंत

जीवंत

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इस अंतारंग के संताप को,इस कदर घोला तुमने,

अपने महासागर रुपी प्रेम में,

जैसे घुलती हो ये जमी उंगलियाँ,

इन ऊन के धागों से बुने दस्तानों में,

जो सौम्य सा सौहार्द देते हैं,

दिसंबर की ठिठुरती ठंड में.

और यूँ बेपरवाह सी जीती हूँ मैं अब,

ना सूरज के उगने की चिंता होती है,

ना ही कलियों के खिलने की चाह.


अब तो आभास होता है,

एक क्रान्ति सा परिवर्तन का,

इस अंतर्मन में,

जिसे सदियों से जकड़ रखा था,

कई दानवों ने,

जो कुचलते रहे सोच को,

छीनते रहे शान्ति,

और

मेरे काल्पनिक उल्लास को भी.

आज,

आखिरकर,

मैं उन्मुक्त हूँ,

निरंकुश और श्वसन,

हाँ!

आख़िरकार,

मैं सही मायने में जीवंत हूँ.


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