Pradeepti Sharma

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धारा

धारा

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जल के प्रवाह अनेक,

कभी समतल शालीन स्थिर,

एक ताल की तरह,

कभी चँचल चहकता हुआ,

एक नादान सी नदिया की तरह,

कभी प्रचण्ड प्रबल रूप लिए,

समुन्दर की लहरों की तरह,

कभी कल कल गाता गीत कोई,

एक झरने की तरह |

कभी एक लकीर सी धारा बन जाए,

कभी एक टेढ़ा मेढ़ा किनारा बन जाए,

कभी मीलों तक यूँ फैलता हुआ,

किसी क्षितिज की तलाश में,

कभी ओक भर में यूँ समाता हुआ,

किसी तृष्णा तृप्ति की आस में,

कभी ये एक फुहार सा,

तो कभी एक बौछार सा,

कभी ये बूँद बूँद सा,

तो कभी ये कतरा कतरा सा |

जल के प्रवाह हैं कई,

हर प्रवाह है निराला,

कभी स्रोत को छोड़ता,

कभी गंतव्य को ढूँढता,

कभी रुकता,

कभी ठहरता,

कभी मुड़ता,

कभी घूमता,

कभी गिरता,

कभी उछलता,

कभी बहता,

कभी लेहलहता,

सावन में बरसता हुआ,

बसंत में पिघलता हुआ,

ग्रीष्म में उबलता हुआ,

शीत में जमता हुआ।


     


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