जीवन यथार्थ
जीवन यथार्थ
मद्धम मद्धम ढल रही देखो बसंती शाम,
रक्त वर्ण हुआ सुनहरे अम्बर का चाम।
स्वर्णिम हुआ सरिता का शांत सुंदर जल,
ठहरा है किनारे पर लहरों का कोलाहल।
दो विटप खड़े मौन, इस वातावरण में,
क्या होगा भविष्य उनका अगले चरण?
हर कहीं हो रहा वृक्षों का कटान,
खड़े हो रहे कंक्रीटो के महल नुमा मकान।
दो निरीह प्राणी कर रहे मौन वाचन,
मानो कर रहे हो अंतिम अभिवादन।
आधुनिक युग में नष्ट हो रहे सुंदर जंगल,
कलयुग में हो रहा कैसा सर्वत्र अमंगल?
भूख- प्यास से व्याकुल हैं खग मृग,
ढूंढ रहे पीने योग्य जल उनके दृग।
बहुत शांत और निराश है नदी का किनारा,
विलुप्त प्रायः हो गया आशा का सितारा।
किन्तु यह जीवन कहीं रुकता नहीं है,
समस्याओं के समक्ष कभी झुकता नहीं है।
आओ हम सब मिलकर बदल दें भविष्य का चित्र,
प्रकृति को बना लें अपना अभिन्न मित्र।