जीवन चक्र
जीवन चक्र
क्या सुनोगे और क्या मैं सुनाऊं उम्र भर साथ चलने का वादा किया था, उत्साह उमंग से शुरू हुआ यह सफर, न जाने कब आ गया पथरीले रास्तों पर। ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियों के बीच, मंज़िल तक पहुंचेंगे तो ज़रूर एक दिन, बस यूं ही लगता है कि कभी-कभी, क्या तुम सुनोगे और क्या मैं सुनाऊं। बस इतना ही जान सके हैं अब तक, समय का चक्र घूमता है अपनी गति में, हम चलते रहे या बैठ जाएं थककर, यह तो हम को ही करना है निर्णय। बात जब उम्र भर साथ चलने की हो तब, रुक कर भी क्या हासिल कर लेंगे हम? सच है कि मन को मोह लेती है बसंत ऋतु, पतझड़ न हो तो तो बसंत का इंतजार क्यों? क्या सुनोगे तुम और क्या सुनाऊं, बस इतना ही कि चलते रहो खामोशी से ही, रुक गए कदम तो बन जाएंगे पत्थर, और पत्थरों पर कभी भी फूल नहीं खिलते। आखिर इंसान हैं हम, पाषाण तो नहीं। टूटेगी खामोशी जिस दिन भी, उसी दिन खिलखिलाएगी ज़िंदगी, वक्त भी तो होता है परिंदे के माफिक, कभी तो बैठेगा मेरे घर की छत पर, बस तब तक ही करना है इंतजार हमको। इसीलिए ना रुकना है ना बैठना है, बस चलते ही जाना है ज़िंदगी के सफर में, हर सवाल का जवाब मिलेगा उस दिन, जिस दिन खुलेगी वक्त की किताब। ना तुम कुछ कहो ना मैं कुछ सुनाऊं, बस यूं ही चलते रहे साथ-साथ ज़िंदगी के सफर में। -हरीश भट्ट
