जीती जागती मूर्ति
जीती जागती मूर्ति
जबसे सृष्टि की रचना हुई
हमें समझा गया एक वस्तु
विभिन्न रूपों में हमें ढाल कर
बना दिया गया उपभोग की वस्तु
पिता के घर पुत्री बनकर
खींची मिली तमाम अड़चने
घर से बाहर निकलने में
भेजा गया भाई के पीछे
बिदा हो कर आई पति के घर
लगाई गई लक्ष्मण की रेखाएँ
चूल्हा-चौके के काम में आगे
अहम फैसले में कर दिया गया पीछे
शुभ कार्य में रखा गया
हमेशा पति के साथ
घर से बाहर निकलते ही
बोला गया चलने को पति के पीछे
पति का साथ मिला तो
रखा गया लक्ष्मी का नाम
बिना पति के रहना पड़ा तो
कुलटा, डायन, बदचलन मिला नाम
नवरात्रे में तो पूजा गया
देवी के रूप में
कोख में मार दिया गया
सिर पर बोझ समझ के
मूर्ति की तरह रखा गया
घर में सजा के
कठपुतली की तरह नचाया
सबने इशारों पर अपने
सब भूल गए अंतर
मूर्ति और इंसान के बीच
नारी को बना दिया गया
जीती-जागती मूर्ति
मगर हे पुरुष! सुनो
नारी मूर्ति नहीं इंसान है
उसमें भी प्राण-जान है
अगर वो झुक सकती है
तो काली बन उठ भी सकती है
वो नहीं माँगती तुमसे
अपार धन और दौलत
बस चाहिए उसे तुम्हारा
साथ, प्यार और सम्मान
उसे चाहिए अपनी
हिस्से की आजादी
उसे चाहिए अपना
जिंदगी जीने का हक।
