इतना रश्क क्यों
इतना रश्क क्यों
मेरी तप्त आह को नज़र अंदाज़ करने वाले
मेरे एक गर्म उच्छ्वास की आग से कैसे जल गए,
मेरे खुलते लब को खामोश करने निकल पड़े!
जंजीरों की आदत मेरी छूट गई,
असीम आसमान में मेरा एक कदम रखते ही
मेरी आसपास से एक काला धुआँ उठा,
जलन की आग इतनी ज़हरिली जो थी!
कितनी सदियाँ काटूँ अब
मेरे विमर्श में सड़ रहे है किताबों के पन्नें!
पहुँच गया इंसान चाँद के पार
एक मेरी ही जमात के कुछ किरदार
घर के कोने में धूप को तरसते पड़े रहे!
लघु से विराट बनती मेरी शख़्सीयत
कहाँ रास आएगी मर्दाना
समाज को!
झकझोरते अपनी हस्ती को आज
लाँघी जो दहलीज़, मुँह खट्टे हो गए कुछ गर्वित के!
जायका जो बदल लिया मैंने
हो चुका बहुत मीठा अब थोड़ा तीखा हो जाए!
न रोक पाएंगे अब मेरे कदमों की रफ्तार को बेड़ियों के बंधन,
मुखर जुबाँ और मुक्त परवाज़ है,
उड़ना है गर्विता बन अपने चुने आकाश में।।
निकलो देहरी से बाहर,
भीतर पसीजने से कोई
शीत गगन का टुकड़ा
ओख में उठा कर नहीं देगा
वजूद को उपर उठा
इंतज़ार कर रहा है बाँहे पसारे
तेरी उम्मीद का जहाँ,
तेरी खुशियों का आसमाँ।।