इश्क ऐसी एक आग है
इश्क ऐसी एक आग है


तू अपने हुस्न के दीदार की ,
फरमाईश कुबूल कर ना ,
मैं तमाम उम्र तुझको ,
अपनी नजरों में कैद कर लूँ |
तेरा हुस्न मुझे दीवाना ,
बना कर के ले इजाजत ,
कि मैं अब चली जाऊँ ,
या तुम गश खा - खाके गिरोगे ?
मैं तेरे सामने खुद को ,
ना संभाल पाया ,
तेरे काँच के बदन को देख ,
यहाँ भी सब बह गया |
जो तू अगर मिलने चली आती ,
ओ मेरी जान ,
तो लौट कर जाने ना देता ,
जब तक ये ज़िस्म हरकत करता |
कुछ रिश्तों में ज़रूरी नहीं ,
कि तन से तन का मिलन ही बहके ,
इश्क ऐसी एक आग है ,
जिसकी खुशबू से ये जीवन महके |