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Amit Kumar

Abstract Tragedy Classics

4  

Amit Kumar

Abstract Tragedy Classics

इरादा

इरादा

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इक तेरी याद 

फिर दिल पर

दस्तक दे गई

मैंने बरसों लगाए है

तुझको भुलाने में


और ये कम्बखत

एक पल में

सब कुछ ले गई

शायद मैं और 

मेरा इरादा दोनों

उतने मज़बूत न थे


जितना तेरी याद

मेरे दिल में रही

तू कभी कह न सकी

और मैं कभी ख़ामोशी

को पढ़ नहीं पाया


कैसा मज़ाक था क़िस्मत का

न तू ही समझ पाई

और न मैं ही समझ पाया

हम दोनों ही अपने अपने

रास्तें पर सही थे


फिर क़सूर वक़्त का हुआ

या फिर उस क़िस्मत का

जो हम दोनों को और भी

अलहदा कर गई

या फिर हमारे निभाए 


गए उन किरदारों का

जो अपनी भूमिका अधूरी

ही जी सके और

पूरा होने के लिए

जाने कहाँ कहाँ भटकने

को चल दिए 


न कोई निशां बाकी रहा

फिर किसके कदमों की

आहट उन्हें गुमराह 

कर रही है

शायद एक अधूरी सी

छटपटाती ख़लिश है

जो दोनों में ही

घर कर गई है


हम कोई दरवेश तो नहीं

जो बेगुनाह होंगे

मुहब्बत भी एक बड़ा संगीन

जुर्म है ज़माने की निग़ाह में

ज़माना ग़र मुहब्बत करे

तो जाने क्या होता है


किसी की मुहब्बत का 

मज़ाक उड़ान या क्या

गुज़रती है जब कोई

दुआ अधूरी सी अर्श 

तक जाते जाते बीच में ही

दम तोड़ देती है


या कोई अधूरी ख़्वाहिश

मुक्कमल न हो पाने पर

अपनी लाश को अपने

कंधो पर लेकर

चक्कर कटती रहती है


ज़माने ने कभी दर्द तो

नहीं बांटा और न सहा

बस हंस दिया मुस्कुरा दिया

अब जाकर समझा हुँ


उसकी ये अदा मैं

वो तो मुझे बरसो से

अपने जैसा बनाने पर

तुला था लेकिन

मैं भी उसे अपने में ही


ढलने और ढालने में

जुटा रह गया....

हम दोनों ही सही थे

और हम दोनों ही

सही है बस समझने का फ़र्क़ है....।


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