इंतिज़ार तो हमें आज भी है..!
इंतिज़ार तो हमें आज भी है..!
आओ हम लौट चलें
बचपन की उन गलियों में
जहाँ...
हमें इंतज़ार रहता
अपने पापा के आगमन का।
हम भाई-बहन
आपस में लड़ते-झगड़ते
तमाम शिकायतों का
पुलिंदा बनाये
इंतज़ार करते रहते ;
पापा से....,
ये बातें करनी है
वो शिकायतें करनी है,
इनकी पोटली बनाये
घर की देहरी पर
बैठ इंतज़ार करते हम ;
और जब....,
लम्बी दूरी (यात्रा कर) तय कर
शरीर थकान से चूर/
पर...!
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान
लेकर आते हमारे पापा,
हम दौड़ जाते उनके पास
और वो...,
अपनी बांहे फैला
भर लेते अपने आगोश में
हम भाई बहनों को
और जब उनका
स्नेह पूरित कोमल स्पर्श
पड़ता हमारे कपोलों पर
तब....,
अपनी शिकायतों को
विस्मृत कर हम
एक-दूसरे को देखते हुए
यही कहते, शायद
तुमसे ज्यादा हमको
प्यार करते हैं हमारे पापा,
और थोड़ा डांट पड़ने पर
एक - दूसरे को
मन में हिलोरें लिये हुए
खुशी से उछल कर
इशारों में ही कह ही देते
एक - दूसरे से ;
देखा....!
मैंने कहा था ना!
तुमसे ज्यादा मुझे
प्यार करते हैं मेरे पापा।
और इस प्रकार
एक - दूसरे से लड़ते -झगड़ते
स्पर्धा करते एक - दूसरे से
कब बड़े हो गये हम
पता ही नहीं चला।
इंतज़ार तो हमें
आज भी रहता है
पर...,
पापा के आने का नहीं
पापा के पास जाने का
और.. सेवा के बहाने
उनके चरणों से लिपट जाने का।
वही पुराना वाला
पितृ - स्नेह से परिपूर्ण
कोमल स्पर्श को पुनः
अपने कपोलों पर
महसूस करने का।
हाँ...,
इंतज़ार तो हमें आज भी....!!