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इंसान

इंसान

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घमंड हूँ,

अहंकार हूँ,

गुरूर हूँ,

इंसान होने के,

ख़याल में मग़रूर हूँ।


सोच में तो,

जन्नत की हूर हूँ,

मगर करमों से,

अपने बेसहूर हूँ।


द्वेष-लालसा-मोह का,

सुरूर हूँ,

अचैतन्य और अज्ञानता,

से भरपूर हूँ।


भुला चुका हूँ दया,

निश्छल प्रेम-प्रकृति,

का कर्ज़,

धन-मद-वासना,

के नशे में चूर हूँ।


बंधा हूँ,

माया के पाश में,

मजबूर हूँ,

रखता हूँ पौरूष,

नर से नारायण होने का,

मग़र अभी,

ख़ुद ही से दूर हूँ।


सदियाँ बीत गई,

पर इंसानियत नहीं सीखी,

फ़िर भी इंसान होने के,

ख़याल में मग़रूर हूँ।


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