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इल्जाम

इल्जाम

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कड़कती ठंढ़ थी बड़ी वो दिसम्बर था महीना,

घनेरी धुंध में मुश्किल हुआ था ठीक से चलना।


इसी दिल्ली की सर्दी में जीने के वास्ते भाई,

गया था मैं भी अपने ऑफिस के रास्ते भाई।


निकलता मुख से था धुआँ व सिमटे हुए थे लोग,

मेरे भी माथे पे थी टोपी और सीने पे ओवरकोट।


इसी कड़कती ठंडी में देखा कोई था चिथड़े में,

कूड़े से ले लेके छिलके केले के डाल जबड़े में।


कुत्तों से छिना झपटी कर रहा कूड़े के रास्ते,

खुदा मैं दे रहा इल्जाम तुझे अभागों के वास्ते।।


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