हर घर कुछ कहता है
हर घर कुछ कहता है


हर घर कुछ कहता है
सुबह होते ही सबकी
चहल-पहल से उठता है
बच्चों की किलकिल आहट और
कुकर की सीटी की आवाज से गूंजता है
दफ्तर और स्कूल जाने के लिए
वह सब को तैयार करता है
दोपहर होने पर वह भी
आराम की सांस लेता है
हर घर कुछ कहता है
शाम होते ही चाय की चुस्की की
आवाज सुनने को वह मचलता है
बाहे फैलाकर जैसे सबके
लौटने का इंतजार करता है
दिन ढलते ही मंदिर के दिये
और धूप से वह महकता है
हां हर घर कुछ कहता
है
रात को वह बेसब्री से सबकी
बातें सुनने को तरसता है
गुजरे हुए दिन की यादें,
प्यार भरी बातें
सबके चेहरे की हंसी देखकर
वह भी मंद मंद मुस्कुराता है
पूरे दिन की हमारी थकान
मिटाने को वह हरदम तैयार होता है
इन्हीं पलों को तो वह
अपना वजूद समझता है
हां हर घर कुछ कहता है
रात को सब को अपने आगोश में
लेकर वह भी चैन की नींद सोता है
हां हर घर कुछ कहता है
अपनों से ही तो वह बनता है।