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हमसफ़र

हमसफ़र

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वो सूरज 

जो नित्यप्रति आता है

अपनी किरणों को पोटली में समेटे

और कर देता है रोशन

सारी धरती को।


वो चाँद 

जो रात के अंधेरे में

अपनी मुस्कुराहट से

कर देता है उल्लसित 

सबका तन और मन

वो हवा 


जो बहती रहती है अविरल

बिना थके बिना रुके

प्राण बनकर 

भीतर और बाहर भी

वो फूल 

जो जीने की राह दिखा जाता है

रोज़ कुछ नया सिखा जाता है


इन सबका होना महसूसता ना हो

ऐसा नहीं होता 

हमारे भीतर बसा होता है

इनका अस्तित्व

इनका भाव

हाँ हम जता नहीं पाते 


इनके प्रति अपनी कृतज्ञता

प्रतिदिन

क्योंकि ये अपने ही लगते हैं सदा

पर इनकी पल भर की अनुपस्थिति 

अभिव्यक्त हो जाती है अहसास बनकर


ऐसे ही तुम भी

मेरे भीतर बसे हो 

हर साँस में

मेरी रग रग में

मेरे होने में 

और ना होने में भी


क्योंकि तुमसे ही तो है 

मेरा होना या 

ना होना

ओ मेरे हमसफ़र।


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