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Bhawna Kukreti

Abstract

4.5  

Bhawna Kukreti

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हम ही अजीब हैं!

हम ही अजीब हैं!

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कितना 

अजीब है न 

ये दुनिया का मेला 

या हम ही अजीब हैं।

जहां हम 

जब से आये हैं 

तब से बस

किसी अज्ञात के वश में हैं 

भले हर पल 

लगता रहे कि हम

 "खुद " जी रहें है

अपनी जिंदगी। 

जिंदगी वो 

जो हमारी 

है ही नही । 

न कल्पना में 

न वास्तविकता में

मगर अपना मानते हैं उसे 

उसी से जूझते , 

उसी का उत्सव मनाते 

और अक्सर ही 

यही जिंदगी 

वो देती है जो हम 

नहीं चाहते 

और वो लेती है 

जो हम नहीं चाहते। 

अजीब पागल सी 

लगने लगती है जिंदगी 

और अपनी 

भूमिका भी ।

दोनों ही 

जैसे अपनी तरह से 

जबरदस्ती करते हुए

एक दूसरे से । 

न चाहते हुए भी 

हम भागते ही रहते हैं 

जिंदगी को 

सही से समझ पाने 

जीने के लिए। 

मगर.....

अंदर एक डर लिए 

कहीं बेवक्त 

मौत न आ जाये। 

मौत ! 

जो आयी तो 

छूट जाएगा 

सब पीछे । 

वो सब 

जिसके लिए 

हम जद्दोजहद 

कर रहे होते है। 

परेशान होते 

कभी खीझते 

कभी आह्लादित होते हुए 

और कभी 

सब बातों के 

अतीत में 

रह जाने का दुख

महसूस करते हुए। 

भागते ही रहते है

इसी तरह की 

आधी अधूरी जिंदगी के पीछे 

मौत से डरते हुए।

जबकि हर बार देखते हैं

यही मौत 

हमे मुक्त करती है , 

जगाती है

चारों तरफ फैली 

मृग मरीचिका से।



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