हिन्दी की व्यथा
हिन्दी की व्यथा
तुम हो हिन्दी गर्व तुम्हें हो
हिन्दी तुम्हारा अभिमान है
14 सितम्बर को संविधान में
मिला मुझे ये सम्मान है।
पाकर अपनापन मुझसे
पराये भी मेरे हो जाते हैं
सुनकर मेरे बोल रसीले
वो सपनों में खो जाते हैं।
माँ सा दिया दुलार मैंने, तुम
गैरों सा व्यवहार करते हो क्यों
नहीं दोष मेरे शब्दकोष में फिर
विदेशी भाषा बोलते हो क्यों।
पढ़ो ध्यान से गर तुम मुझ को
मुझ में नहीं कोई दोष है
देख बर्ताव तुम्हारा ऐसे
मन में मेरे भरा रोष है।
जागो तुम सन्निपात निद्रा से
बेखबर होकर सोते हो क्यों
किया अनुकरण पाश्चात्य का
अब सिर पकड़कर रोते हो क्यों।
कहां गये संस्कार तुम्हारे
जो थे मैंने सिखलाए
अपना कर अंग्रेजी भाषा
तुमने दिये वो सब भुलाए।
न छोड़ो दामन यूं मेरा
मैं अपना शब्दकोष बढ़ाऊँगी
मेरे होते अंग्रेजी आये
मैं जीते जी मर जाऊंगी।
मेरी है यही विनती तुमसे
मुझे बोलने में ना शर्म करो
कौन सी भाषा तुम्हारे लिए अच्छी
स्वयं ही इसका मनन करो।
नहीं चाहती मैं भार बनना
अब तुम ही ये निर्णय ले लो
छोड़ दो यूं बेदर्दी बनकर
या,तन मन धन से अपना लो।
नहीं चाहती मैं अहित तुम्हारा
तुम कब मुझे पहचानोगे
साया बनकर साथ मैं दूंगी
इस बात को कब मानोगे।
मातृभाषा हिन्दी की व्यथा
सुनकर हर हिन्दी क्या कहता है
नहीं छोड़ेंगे साथ तुम्हारा
आज शपथ ये लेते हैं
विश्वास करो हमारा माते
हम प्रण तुम्हें ये देते हैं।
गर्व हमें है तुम पर ही
अभिमान हमारा तुम ही हो
कहेंगे सुनेंगे हिन्दी ही हम
पहचान हमारी तुम ही हो।