हादसों का अट्टहास
हादसों का अट्टहास
एक ये सुखद अहसास है
काल खंड के अंधियारे आसमान के भीतर भी
एक ऊर्जावान शक्ति साँसे लेती है,
जैसे वैशाखी लू को चिरता कोई बादल बे मौसम बरस जाता है।
बाकी तो
ये जो हिमालय की कंदराओं पर जमी बर्फ़ की परतें है
उसमें एक चिंगारी दबी रहती है ज्वालामुखी सी।
रात के तमस को भयावह बनाते
सन्नाटों को लिपटे एक आँधी मुस्कुराती रहती है।
दर्द की कालकोठरी में एक चीख बेकल सी रेंगती रहती है
अबला के सिने में जैसे आक्रोश पनपता है।
कभी-कभी बेतहाशा बरसती बारिश में विलीन होते
दामिनी की गड़गड़ाहट दब जाती है।
इस धरती के वक्ष की हरियाली के भीतर खिसकती
प्लेटों के दरमियां उठते है असंख्य कंपन लगातार।
एक माँ की पुकार में बेबसी बंदी पड़ी रहती है
तनया के तन को जब रौंदते दरिंदे की छाया दिख जाती है।
क्यूँ हंमेशा ब्रह्माण्ड की अनेक सहज गतिविधियों की आड़ में
दारूण हादसों का अट्टहास भी सुनाई देता है।
