गुरू की संगत
गुरू की संगत


अस्त-व्यस्त है जीवन की शैली, खान-पान हुआ खराब है।
भ्रष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण की, होने लगी भरमार है।।
देख घटनाएं विश्व में ऐसी, मानव लगता हिंसक और हैवान है।
मलिनता परिलक्षित होता समाज, स्वार्थी बना अब इंसान है।।
जो भी होता मन बुद्धि है कारण, विवेक शून्यता इसकी पहचान है।
राग-द्वेष की अग्नि भयंकर, पहुंचाती मानव को शमशान है।।
संसार में फंस कर ऐसा उलझा, आत्मिक सुख का कुछ भी न भान है।
अज्ञानता और भ्रम में पड़कर, स्वर्ग बना नर्क समान है ।।
कष्ट देकर प्रसन्न वह होता, समझ बैठा अपने को भगवान है।
विकृत रूप धर्म का जब होता, ज्ञान भी लगता अज्ञान है।।
चहु दिश छाई निराशा की बदली, दुश्मन बना अभिमान है।
युग वेदना से कराहता मानव,तब दयावान बना भगवान है।।
ईश्वर अंश नर रूप में आते, कहते उनको गुरु भगवान हैं।
ब्रह्म रूप उनका है होता,आत्मज्ञान की कहते उनको खान हैं।
सत्संगत की महिमा निराली, देवी-देवता भी गाते यशगान हैं।
पल भर में सबके संकट हरते, गुरु कृपा इतनी महान है।।
अगर चाहता भवसागर तरना, गुरु चरणों में ही तेरा स्थान है।
"नीरज" कर ले ऐसी गुरु की संगत, समय बड़ा ही बलवान है।।