"घूंघट"
"घूंघट"
घूंघट री प्रथा होती बड़ी ही प्यारी है।
नारी लाज की,यह सुंदर किलकारी है।।
घूंघट से ही निकले,सोलह श्रृंगारी है।
घूंघट बगैर नारी कहां लगती नारी है।।
जो घूंघट में रहे,वो किसी से नही डरे।
घूंघट तो औरत की,एक लौहदिवारी है।।
घूंघट नही कोई अंधविश्वास बीमारी है।
घूंघट तो विश्वास की एक चारदिवारी है।।
घूंघट में खिलते,लाज,शर्म,हया फूल,
घूंघट से स्त्री सुंदरता बढ़ती भारी है।।
जिसने भी घूंघट की बात विचारी है।
उसने रचा घूंघट का राग मल्हारी है।।
घूंघट तो स्त्री हेतु ऐसी एक चित्रकारी है।
जिसने चंद्र को दी पूनम रात्रि उजयारी है।।
जब तक पता न हो,पर्दे पीछे क्या है।
तब तक लगता,बहुत रोमांचकारी है।।
घूंघट की भी कुछ ऐसी कलाकारी है।
घूंघट से लगे,सच मे कोई नारी,नारी है।।
घूंघट प्रथा तब बन जाती रूढ़िवादी है।
जब इसमें आ जाती कोई लाचारी है।।
वरना घूंघट आगे तो,पशुता हारी है।
घूंघट ने रची,पुरुष हेतु चारदिवारी है।।
जो ओढ़े,घूंघट,वो न उनकी लाचारी है।
घूंघट सम्मान देने की,एक तलवारी है।।
आओ अपनी घूंघट प्रथा को बचाये।
इसमें फैले हुए अंधविश्वास को मिटाये।।
घूंघट ओठने वालों की क़द्र करे,संसारी है।
न तो मिटेगी,मान देने की यह प्रथा भारी है।।
घूंघट तो साखी एक ऐसी समझदारी है।
जिसने दी,लाज बचाने की तलवारी है।।
दिल से विजय