गर्दिश
गर्दिश
गुजरती रही हैं मिट्टी प्रसव की पीड़ा से
अब कुम्हार के घड़े का जन्म हो जाए
अंत आया कयामत का तो रख हौसला नादां
शब्दों के हलक से सच उगलवा लिया जाए
चुटकी भर उजाले से कितनी उम्मीदे जगाई
वजूद गर मिट गया उजाले का तो अंधेरे का इलाज किया जाए
हद होती है सत्ता के नशे में झूठ बोलने की
जख्म नहीं है चीज बांटने की मुस्कुराहटें बांटी जाए
किरदार बदलते हैं पर्दा बदलते ही खामोशी से
मौत जो हैं इतनी सस्ती तो फिर जिंदगी का सौदा किया जाए
बेघर हो गए हैं इन्सान अपने ही घर में 'नालन्दा'
गर्दिशों से निकलकर खुली सड़क पर शामियाने बिछाए जाए।