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Kanchan Prabha

Abstract Classics Fantasy

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Kanchan Prabha

Abstract Classics Fantasy

गंगा अब मैली नहीं

गंगा अब मैली नहीं

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सुनाई देती है वही

सुरीले पंछी की चहचहाहट फिर से


है हवाओं में शीतल सी

वही गीतों की गुनगुनाहट फिर से


दिखाई देती है अब

साँझ की दुल्हन में शरमाहट फिर से


फूलों पर रंगीन तितलियों की

नजर आती है फड़फड़ाहट फिर से


गंगा भी अब मैली नहीं

उसकी निर्मलता में है सरसराहट फिर से


प्रदूषण की धुँध हुई विलय

वादियों में आई है खिलखिलाहट फिर से


धानी चुनर वह आश्मां में 

रुई के बादलों में गड़गड़ाहट फिर से


सफ़ेद मोतियों की बंदों में है

पायल की छमछ्माहट फिर से


प्रकृति की साँसों पर सजती है

सदियों पुरानी वही मुस्कुराहट फिर से।


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