गजल(तल्खियां)
गजल(तल्खियां)


धूप की तपिश इस कदर बढ़ चुकी की अमीरों के नखरे उतरने लगे,
गरीबों का क्या कहना वो तो
तपती रेत में भी पांव के निशान छोड़ कर चलने
लगे।
एक तो फरमाते हैं आराम ठंडे घरों में,
दूसरे टीन की झोंपड़ीयों में झुलसने लगे।
सोचता है गरीब भर देगा झोंपड़ी की दीवारों को
कभी नरम मिट्टी से ही
लेकिन लू की तल्खियों
से घास के छत जलने लगे।
अमीर क्या जाने गुरबत चीज है क्या
उधर गरीब रोटी के टुकड़ों पर पलने लगे।
उनकी लगी है होड़ बरफीले इलाकों की तरफ,
गरीब रेगिस्तान में भी मेहनत कश बनने लगे।
लकीर के फकीर नहीं बनते
मेहनत वाले कभी सुदर्शन,
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चुनते हैं राह मेहनत की हाथ
पांव चाहे उनके जलने लगें।
अंधेरे भी क्या बिगाड़ सकते
हैं उनका, जो चिरागों की राह
में सफर करने लगे।
अमीरी, गरीबी तो आती जाती छाया है सुदर्शन, बिना
बिजली के भी घर गरीबों के चमकने लगे।
यह तो सब उस प्रभु की माया है कल जो खाक थे
आज महलों में उभरने लगे।
हजारों मिल जाते हैं ख्वाहिशों को तोड़ने वाले,
मगर कभी राह नहीं भटकते डट के चलने वाले।
ले कर सभी को चलना है फितरत इंसान की,
फिर अमीर गरीबों से क्यों जलने लगे।
रख सादगी हमेशा एक दूसरे
से इस कदर की फिर इंसान, इंसान से मिलने लगे।