ग़ज़ल . 33
ग़ज़ल . 33
अश्क़ों के सिपर से लश्कर-ए-ग़म को रोकता है क्या
रेत के पुश्ते से चढ़ते दरिया को बाँधता है क्या
क्या मिला मिला नहीं क्या क्या
कारोबार-ए-इश्क़ में नफ़ा-ओ-नुकसान देखता है क्या
आँखों से टपकते लहू से आसमाँ पर लिख अपना नाम
अपने हाथों की लक़ीरों को देख के रोता है क्या
मुश्तमिल तू भी तो हो कभी इस हंगामा-ए-दुनिया में
अर्श में बैठकर फ़क़त तमाशा देखता है क्या
जिनको घर से निकलते ही मिल गयी मन्ज़िल
उनसे लुत्फ़-ए-सफर पूछता है क्या
वक़्त से आगे निकलने की होड़ में सबको पीछे छोड़ आया
अब तन्हा खड़ा होके यहाँ अपने साये को ढूँढ़ता है क्या
दिल की किताब में उसने कभी कुछ लिखा ही नहीं
शब-ओ-रोज़ सफ़्हे पलट पलट के देखता है क्या
इख़्तिलाफ़ है जब जहाँ में एक ही शख़्स से
फिर ज़माने भर से लड़ता फिरता है क्या
काफिला चला तो साथ कदम बढ़े ही नहीं
अब पीछे छूटा तन्हाई का ग़ुबार देखता है क्या
उम्र भर करता रहा शिक़वा ज़िन्दगी से रूबरू है
मौत तो मुड़ मुड़ के ज़िन्दगी को देखता है क्या
जिसने खुद उभारी हों तेरे माथे पे लकीरें शिकन की
उसके संग-ए-दर पे अपनी जबीं घिसता है क्या
तमाम उम्र गुज़ार दी घर में सामान जोड़ते जोड़ते
अब इनमें अपनी ज़ियाँ खुशियों को ढूँढ़ता है क्या
शमा का तो सिर्फ पिघला जिस्म पर ना जाने कितने परवाने हुए खाक़
ज़माना रोशनी के लिए फ़क़त शमा का शुक्र अदा करता है क्या
मसनूई मुबल्लिग़ की रहनुमाई में मंज़िल-ए-सुकूँ नहीं मिलती
कागज़ की कश्ती से कोई दरिया पार होता है क्या
'प्रकाश' तू ना कहता था कि ये दिल फूल है
अब दिल से ग़मों के काँटे निकालता है क्या
