घूंघट
घूंघट
मेरे मन की भावनाओं को,
मैं, संजोता रहा,
इस घूँघट के दायरे को,
मैं, समझता रहा,
बहन, मां, प्रेमिका, बीवी की
इन उलझनों, की,
अनकही यातनाओं को,
जान कर भी,
अनदेखा करता रहा।
मासूम सी यह लड़की,
अपनी इज्ज़त को ढ़कती रही,
यह जान गया कोई, कि,
उसने, रास्ते में मेरा हाथ पकड़ा,
अपमान भरी नज़रों या बातों से मेरा पीछा किया,
तो,
धड़कने रोक दी जाएंगी मेरी,
घर से निकलना, बंद हो जाएगा मेरा,
मेरे दायरे पे पहरा लगा देंगे, सब,
मेरे उड़ते पंखों को काट देंगे, सब।
इस सोच को बदलना होगा,
इतनी रात को यह लड़कियां, अकेली क्यों,
इनको डर नहीं लगता,
इस सोच को बदलना होगा।
उन वहशी आंखों और हाथों को,
कुचलना होगा,
गलती उस औरत की नहीं,
जो सज़ा वो सारी उम्र झेलती रहे,
उस रूढ़िवादी सोच को बदलना होगा,
सज़ा का पैमाना, ऐसा हो, कि,
नज़रें उठे तो सिर्फ, इज्ज़त में,
ना कि इज्ज़त उतारने को।
इस सोच को बदलना होगा,
घूँघट , ही नहीं,
इस सोच को बदलना होगा।