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Indu Verma

Abstract

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Indu Verma

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"घरोंदा"

"घरोंदा"

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197



ये नाम सिर्फ इतिहास का हिस्सा सा लगता है

दादी नानी का कोई किस्सा सा लगता है

अब कहाँ नज़र आते हैं घरोंदे

अब नज़र आते हैं तो,

बस चूने सीमेंट से बने

एक के ऊपर एक रखे,

एक दूजे का बोझ से ढोते

बिना ज़मी और आसमान के अनाथ से

रंगीन दीवारों और महँगे सामान से सजे हुए 

जहाँ रिश्ते एक दम बेरंग से

और ज़िंदगियाँ बेढंग सी बिखरी हुई

न तुलसी की सुगंध न मंदिर की घंटी

हवा में बहती है तो बस wifi की तरंग

और सुनाई देता है तो

बस फ़ोन का vibration

यहां न रसोई में पूरियां छनती है

न शाम वाली वो चाय बनती है

कुछ जिस्म रहते हैं यहाँ

एक दूजे से बेखबर

ज़िंदगी की दौड़ में

सबको पीछे छोड़ने की होड़ में

न जाने कब जाते हैं 

कब वापस आते हैं

सच ये मकान ऐसे ही होते हैं

बिना अहसास,बेजान 

इसे कैसे कह दूं "घरोंदा"

ये घरोंदे का अपमान



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