"कितना आसान है न"
"कितना आसान है न"
कितना आसान है न
गैरों की बेटियों का वजूद तय कर जाना
नज़रिए के तराजू को अपमान से भरकर
उसके तन और मन को एक साथ तोल जाना
कितना आसान है न
अपने मन की कालिक से
उसके सावले से रंग को
काला स्याह कर जाना
ओछी सी सोच से
कद कभी छोटा कभी बड़ा
और वजन को कम ज्यादा कर जाना
कितना आसान है न
हौसले से भरी चाल चले तो
चाल चलन का अंदाज़ा लगाना
अगर खामोश चुप सी रहे तो
"गूंगी गवांर" का ताना कस जाना
जाने किस पैमाने पर नापते है लोग
बाजार की गुड़िया और
आँगन की बिटिया में
फ़र्क क्यों नही समझ पाते हैं लोग
क्यों नही समझ पाते
बेटियाँ सब की एक जैसी होती हैं
किसी की "खूबसूरत" भी होती हैं
किसी की सिर्फ़ "खूबसीरत" ही होती हैं