घृणा
घृणा
घिन, नफरत या घृणा कहो जी,
है विकार मन का गहरा !!
पढा लिखा जो गुना सुना है,
सोच उसी पर निर्भर है !
मन में भाव उभरते वे ही,
जो करने को तत्पर है !
बुरा कहीं जो हुआ अगर तो,
मन जाता है यह सिहरा !!
है पसंद जो सिर आँखों पर,
नापसंद खटका करता !
यहीं पनपता घृणा भाव है,
मन विकार पैदा करता !
खाई वैचारिक बढ़ती है,
मुश्किल है इस पर पहरा !!
नफरत सदा प्रेम से मिटती,
सेवा औ सहयोग जड़ें !
करें आचरण शुद्ध हमारा,
निज को नित दिन सुघड़ घड़ें !
भाव हमारे मन में पैठे,
खुशियों से जाएं लहरा !