घर से मस्जिद...
घर से मस्जिद...
घर से मस्जिद हैं बहुत दूर चलो यूँ कर ले,
ख़ुद को मुस्कुराता ... आईने में देखा जाए...
यूँँ तमन्नाओं का घूट-घूट जनाजा क्यूँ निकाले,
अब खुद ही इन आँसुओं का सहारा बन जाए...
बड़ी महँगी हैं वफा, इस दुनिया में कहाँ मिलती है,
अपने आप को यूँ ही बेवफाई पर भला अब
नीलाम क्यूँ कर ले...
टूटा जो अक्स आईने में, तो आईना ही क्यूँ बदले,
अपनी परछाई को ही अब दीपक से कहीं दूर रखा जाए...
कुछ उम्मीद पर जमाना जो ना निकला खरा,
क्यूँ अब खुद की खुशी की नीलामी सारे बाजार करें....
उनसे सजा पाने का क्यूँ इंतजार अब करें,
खुद को इतना मजबूर ना करें के कोई आकर
अब रूला कर चला जाए....