ग़ज़ल
ग़ज़ल
डरे-डरे से, सहमे-सहमे से रहते हैं।
आजकल हम थमे-थमे से रहते हैं।
सर्द फ़ज़ाओं ने कैसा क़हर बरपा है,
अकड़े-अकड़े, जमे-जमे से रहते हैं।
ये आँधियाँ तोड़ न डालें ये सोच के,
इन दिनों बहुत नमे-नमे से रहते हैं।
अब नहीं होती है हमसे आवारागर्दी,
चहारदीवारी में रमे-रमे से रहते हैं।
'तनहा' कैसा दौर आया है मुल्क में,
हरेक जगह अब मजमे से रहते हैं।