ग़ज़ल
ग़ज़ल
दुनिया से दर्द अपना छिपाने में रह गया
मैं नज़्म था तराने सजाने में रह गया
दम तोड़ गई छांह घने बरगदों की फिर
मैं खुद को आंधियों से बचाने में रह गया
वो साथ मेरा छोड़ कभी जाएगा नहीं
ताउम्र इस गुमाँ को निभाने में रह गया
देखा नहीं उसने मेरी आँखों में झांक के
वो नासमझ मुझे क्यों रुलाने में रह गया
वो आखिरी सलाम किसी ने देखा नहीं
ज़ालिम जहाँ ये जिस्म जलाने में रह गया
गैरों का फ़र्ज़ अपने निभाते रहे सदा
मै अश्क सबसे छुप के सुखाने में रह गया