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Vaibhav Dubey

Abstract

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Vaibhav Dubey

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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रिश्तों का कर रहे हो ये व्यापार किसलिए

झगड़े भी घर के हो गए बाज़ार किसलिए


खाली ही हाथ आये थे खाली ही जाओगे

खिचती है बात बात पे तलवार किसलिए


भूखा रहा वो रात भर उठ न सका सुबह

रोटी न दे सके जो वो सरकार किसलिए


खामोश सब रहे जो मिला चाँद रात से

हम प्यार जो किये हुए अखबार किसलिए


थाली में खा के छेद जो करता रहा तो फिर

ऐसे गुनाहगार का सत्कार किसलिए


सरहद नहीं रहे न रहे दिल में दूरियां

मजहब के नाम प्यार से इनकार किसलिए


जिनके करम से ही हमें जन्नत नसीब है

'वैभव' बुजुर्गों का ये तिरस्कार किसलिए।


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