ग़ज़ल ।
ग़ज़ल ।
कोई ख्वाहिश ना रही कोई भी हसरत ना रही,
तुझसे ए हमसफर बिछड़ के वह तबीयत ना रही।
अब हर एक अदा हर एक बात गंवारा है हमें,
अब जमाने में किसी से भी शिकायत ना रही।
अब मरों में है जिंदों में बिछड़ के तुमसे,
ज़िंदगी तनहा हुई पहली सी सूरत ना रही।
जिनके दीदार के लिए हम खिंचे आते थे,
आज महफ़िल में वही मोहिनी मूरत ना रही।
रब से माँगे है दुआ दिल कश-ओ- नाकिस(अच्छे-बुरे)के लिए,
अब महज़ अपने लिए ही ये इबादत न रही।
"नीरज"आया है अजब इश्क़ की मंजिल में मुकाम,
सबसे है और किसी से भी मुहब्बत न रही।