ख़ुमार
ख़ुमार
बनके परछाईं तुम्हारी
निहार लेती हूँ खुद को ही
आईने में बार बार
जब आती है तुम्हारी याद
ख़ुद को तो बहला लेती हूँ
तब तुम्हारे दिल से
पर मायूस हो जाती हूँ
आईने के सवालों से
दिन के उजाले में तुम
यादों में नजर आते हो
सोचते हैं तब रात में शायद
सोएगी ये सहमी यादें
लेकर ख़्वाबों का उजाला फिर
दीदार करने चले आते हो
तनहा रात के अंधेरे में
बेकरारी बढ़ाके चले जाते हो
तभी तो देती हैं गवाही
हर रात की तनहाई
आती है याद कितनी
कहती रहती है जुदाई
हर रोज ख़्वाहिश है रहती
तुमसे ही मिलन की
काटे ना है कटती ज़ालिम
ये लंबी डोर वक्त की।