ग़ज़ल - इश्क़ है
ग़ज़ल - इश्क़ है
तुम अकेले में अगर हो मुस्कुराते इश्क़ है।
महफ़िलों में भी अकेले गुनगुनाते इश्क़ है।
हर किसी को तुम दिखाते ख़ून-औ-ज़ख़्म-ए-जिगर,
बात दिल की बस उसी से कह न पाते इश्क़ है।
जब नज़र से दूर हो वो चैन दिल को ना मिले,
सामने जब वो पड़े नजरें चुराते इश्क़ है।
हसरत-ए-दीदार में दीवानगी हद से बढ़ी,
इक पुरानी याद में हँसते-हँसाते इश्क़ है।
बेखबर तो है नहीं वो जानती हर बात है,
हाल कहते होंठ फिर भी थरथराते इश्क़ है।
ख़्वाब देखे जो खुली आँखों से तुमने रात दिन,
बंद आँखों में सितारे झिलमिलाते इश्क़ है।
हाथ उठते जब दुआ में माँगते उसकी ख़ुशी,
नूर उसके अक्स का दिल में सजाते इश्क़ है।
मुसम्मन महजूफ़)