Ghazal No.12
Ghazal No.12
कहर-ए-तूफ़ां-ए-ग़म से इस कदर टूटा हूँ मैं
ज़र्रा ज़र्रा हो के फ़िज़ाओं में बिखरा हूँ मैं
मलता रहा मुद्दतों अपने चेहरे पर नाकामियों की राख
तब कहीं जा कर कामयाबी के आईने में निखरा हूँ मैं
गुमाँ में था कि दास्ताँ-ए-हयात का खास किरदार हूँ मैं
बेखबर कि ज़िंदगी की नज़रों में फ़क़्त एक मसखरा हूँ मैं
चलता रहा ज़माने की राह पर तो चश्म-ए-गीर था मैं
बनाई जो खुद की राह तो उसकी नज़रों में बहुत अखरा हूँ मैं।
