फ़िर कभी
फ़िर कभी
मद्धम सी शाम की हल्की किरणों के
साए में किसी समंदर के किनारे
बैठ सारे दिन की थकान
तेरी बातों में लपेट दूँगा
फ़िर कभी किसी इतवार की सुबह
जब सूरज ने सर जो उठाया होगा
खेतों के बीच पहाड़ो के पीछे
नदियों के किनारे बैठ
इन सुनहरे पलों को जी लूँगा
फ़िर कभी किसी पूनम की रात में
सितारों और चाँद की मौजूदगी में
बीते हुए कल की गलतियों पे
बेधड़क बेहिचक बातों के बवंडर में
सुबह को तेरी ज़ुल्फों के झरोखे से देख लूँगा
फ़िर कभी उन बारिश की धीमी बूँदों में
वो हल्की हल्की सी ख़्वाइशों में
कहीं बेकाबू इस कशिश में
तुमसे फिर मोहब्बत कर लूँगा
फ़िर कभी तेरी यादों की गलियों से
भागते हुए हक़ीक़त की जमुरियात को
पूछते हुये खुद के मन को
समझाते मनाते हुए
किसी दोपहर की कड़ी गर्मी में
चहरे पे हँसी ला दूँगा
फ़िर कभी....