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Shakuntla Agarwal

Abstract Others

4.8  

Shakuntla Agarwal

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"एकाकी"

"एकाकी"

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300


किस्मत ने ऐसा खेल दिखाया,

मुझे अपनों से भरमाया,

अपनों का जीवन उन्नत करने की चाह में,

ऐसी उन्मुक्त हो गई मैं,

अपने आप से ही विमुख हो गई मैं,

अपने सपनों को तिलाँजलि दे,

उनके सपनो को सजाने में खो गई मैं,

ठोकर लगी तब जाना,

ये है आधुनिक ज़माना,

अपने - अपने नहीं हैं यहाँ,

मात्र छलावे की है दुनिया,

स्वार्थों का खेल है यहाँ,


माँ - बाप जो करें फर्ज़ बन जाता है,

बच्चे जो करें एहसान कहलाता है,

बात चलती है जब विचारों की,

पीढ़ी अन्तराल कहलाता है,

बूढ़े माँ -बाप के होंठों पर ताला लग जाता हैं,

नसीब में उनके बस एकांत आता है,

एड़ी उठा - उठाकर ताकते रहते हैं,

काश ! बच्चे आयें, दुःख - दर्द बाँट जायें,

बच्चे अपनी दुनिया में मग्न हो गये,

अपने बीवी - बच्चों में खो गए,

ज़हर का घूँट जो हम पी रहें,

वो भी वही पीयेंगे,

आज एकाकी जीवन हमने जिया,

कल वो भी वही जीयेंगे,

तब वह पछतायेंगे,

हाथ मलते रह जायेंगे,

फिर पछताये होत क्या,

जब चिड़िया चुग गई खेत,

अब आँसू "शकुन" कितने ही बहाओ,

जब खण्डहरों के बचे हैं सिर्फ़ अवशेष।।                



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