एक सुखद मोड़ - भाग ७ (आखिरी भाग )
एक सुखद मोड़ - भाग ७ (आखिरी भाग )
विशम्भर सुबह उठा और मंदिर जाने के बाद अपनी हवेली के लिया चल पड़ा। वो रोज गांव में चक्कर लगाने तो जाता ही था पर अपने बेटों के घर पर कभी नहीं गया था। गांव वाले जो भी उसे भिक्षा में दे देते थे वो खा लेता था। आज उसका मन था कि अपने बेटों के हाथ से दिया हुआ खाना खाए। जब वो हवेली में पहुंचा तो बाहर दरवाजे पर एक नौकर खड़ा था। उसने पूछा बाबा क्या चाहिए। विशम्भर बोला कि बेटा क्या एक गिलास पानी मिलेगा। नौकर पानी लेने चला गया। तभी विशम्भर को अंदर से दोनों बेटों के लड़ने की आवाजें आयीं। दोनों में आपस में किसी जायदाद को लेकर कहा सुनी हो रही थी और ऊँची ऊँची आवाज में वो दोनों बोल रहे थे। इतने में नौकर पानी लेकर आ गया था और विशम्भर ने पानी पी लिया। नौकर ने बाबा के बारे में सुना तो था पर वो कभी उनसे मिलने नहीं गया था। स्वाभाव से वो भला आदमी था। विशम्बर ने नौकर से पूछा कि अपने मालिक से पूछो क्या बाबा को खाना मिलेगा। वो ये कह ही रहा था कि सबसे बड़ा बेटा अनिल घर से बाहर की तरफ आया और नौकर को बोला की ये बूढा कौन है और इसे बाहर निकालो। उसने अपनी गाडी स्टार्ट की और धूल उडाता हुआ विशम्भर की बगल से निकल गया। दूसरा बेटा अमित भी ऊपर बालकनी से देख रहा था और उस की आँखों में भी विशम्भर (बाबा) के लिए घृणा थी।
विशम्भर उस के बाद अपने छोटे बेटे विजय के पास गया। विशम्भर की पत्नी मकान के बाहर ही बैठी थी। बाबा को देख कर वो अंदर से पानी ले आई और पूछा , बाबा खाना खाओगे। विशम्भर ने हाँ में सर हिला दिया। उसकी पत्नी उसे घर के अंदर ले गयी और उसे बैठा कर खाना लेने चली गयी। इतने में उसका बेटा विजय भी आ गया और विशम्भर के पैर छूने लगा। विशम्भर इस बार अपने आंसू रोक नहीं पाया। विजय को कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। उसने बाबा से पूछा क्या बात है तो विशम्भर ये कह कर वहां से निकल गया कि उसे अभी अभी याद आया है और किसी जरूरी काम के लिए उसे जाना होगा। वो सीधे अपनी कुटिआ में आया और बिस्तर पर लेट गया।
विशम्भर अपने पुराणे दिनों के बारे में सोच रहा था कि कैसे वो सिर्फ पैसे के सिवा किसी और चीज को अहमियत नहीं देता था और आज वो इतना बदल गया है कि पैसा उसके लिए कोई अहमियत ही नहीं रखता। वो सोच रहा था के कैसे जिंदगी का कोई मोड़ आदमी को बिलकुल बदल देता है। उधर उसके दोनों बड़े बेटे अमित और अनिल गांव में उसकी लोकप्रियता से काफी परेशान हो चुके थे। वो उससे छुटकारा पाना चाहते थे। एक दिन दोनों ने मिल कर विशम्भर (बाबा) को मारने का प्लान बनाया। दोनों रात के अँधेरे में उसको मारने के लिए मंदिर वाली कुटिआ में पहुँच गए। विशम्भर अभी सोया नहीं था। उसने जब बाहर आवाज सुनी तो खिड़की में से झांक कर देखा और दोनों को पहचान गया। वो समझ गया की ये दोनों हथ्यार लेकर उसे मारने आये हैं। वो एक कोने में खड़ा होकर उनके अंदर आने का इंतजार करने लगा। जब दोनों कुटिआ के अंदर आये तो विशम्भर ने बड़ी कड़क आवाज से दोनों का नाम पुकारा। दोनों इस आवाज को पहचानते थे और इस आवाज से डरते भी थे। दोनों थर थर कांपने लगे। विशम्भर ने बत्ती जला दी और दोनों को बताया की वो ही उनका बाप है। दोनों विशम्भर के पैरों में गिर गए और अपने किये पर माफ़ी मांगने लगे। इतने में मंदिर में से भी कुछ लोग इकठा हो गए। जब सब लोगों को पता चला कि बाबा विशम्भर ही हैं तो उनको विश्वास नहीं हुआ। विशम्भर ने अपने दोनों बेटों को उठने के लिए कहा और समझाया की दौलत इकठ्ठा करने में कोई भलाई नहीं है और गांव की भलाई करने से ही उनको शांति और मान मिलेगा।
अगले दिन पंचायत बुलाई गयी और सारा गांव इकठ्ठा हुआ। आस पास के गांव से भी लोग ये कहानी सुन कर आये। विशम्भर ने अपनी सारी कहानी सुनाई और बताया की कैसे जिंदगी के एक मोड़ ने उसे अंदर तक बदल कर रख दिया है। फिर वो अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर अपनी हवेली में आ गया। उसका दोस्त इंद्रेश भी वहां आया हुआ था। इंद्रेश ने विशम्भर से कहा की अब अपनी दाढ़ी मूंछ काट कर अपनी पहले जैसी सूरत में आ जाये पर विशम्भर को अपने इस नए रूप से बहुत लगाव हो गया था और वो उसे वैसा ही रहने देना चाहता था। दोनों बड़े बेटे उसकी सारी बातें मान रहे थे और उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे , डर से ही सही। पर उसे पता था की अगर वो अभी नहीं भी बदले हैं तो भगवान उन्हें भी कोई सुखद मोड़ दिखायेगा जिससे कि उन्हें भी जिंदगी के असली मायने समझ में आ जायेंगे। बाहर लोग विशम्भर की जय जय कार कर रहे थे पर अब उसे इन बातों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। वो अब एक संत बन चुका था जिसके लिये हर्ष और विषाद अब एक बराबर थे।
