एक कप कॉफी
एक कप कॉफी
☕️ एक कप कॉफ़ी ☕️
(श्रृंगार और हास्य का अलंकृत अनुपम संगम)
✍️ श्री हरि
📅 27.07.2025
कुंतल बिखरे, नयन अधूरे, साँसों में कुछ सिहरन सी थी,
वो बैठी थी बालकनी में — उसके चेहरे पे फिसलन सी थी!
हाथों में उसका कप था गरम, होंठों पे हल्की प्याली,
कॉफी में से झाँक रही थी वो — जैसे अरमानों से दीवाली।
कहने को वो थी कॉफ़ी ही — पर स्वाद में था जादू अपार,
झागों में जैसे रचे हुए हों — किसी षोडशी के सोलह श्रृंगार।
हल्के से उसने मारी फूँक, भाप में उसकी सांसें घुल गई,
"वाह! क्या सीन है! जैसे उर्वशी और मेनका दोनों मिल गईं!"
कॉफ़ी के स्वाद से लब थरथराए — जैसे वीणा की हो तान,
लबों पर थी डबल मिठास, उसमें अटक गई नन्ही सी जान!
जुल्फें झटकाते मुस्काके पूछा — “शक्कर डालूँ या प्यार?”
मैं बोला — "अगर दोनों मिल जाएँ तो हो जाए बेड़ा पार!"
कॉफ़ी के संग-संग आँखों ने जब आँखों से की मीठी बातें,
बिना दूध, बिना ब्राउन शुगर — मिल गई प्रेम रस की सौगातें!
वो बोली — “कॉफ़ी बहुत गरम है, जरा सँभल कर पीना,”
मैं हँसकर बोला — “तुमसे ज़्यादा गर्म नहीं है यह, मेरी मीना!”
कॉफ़ी में उसकी चाहत का स्वाद था, मन प्रफुल्लित हो गया,
हर घूँट बना सौंदर्य-कथा, बिंदास अंदाज़ पोर-पोर भिगो गया।
कंपकंपाती उँगलियाँ बयाँ कर रही थीं उसका हाल-ए-दिल,
दिल बोला — "श्री हरि! मिल गई तुझे तेरे प्रेम की मंज़िल!"
मैं समझ नहीं पाया कि वो विदाई थी या दिलों का मिलना था,
उसकी नज़रों ने कहा "मुझे तो एक न एक दिन तुम्हारी बनना था!"
अंत में वह कॉफी की मिठास बनकर मेरे अधरों पे चिपक गई,
एक कप कॉफी क्या मिली यारो, अपनी तो जिंदगी ही बदल गई।
☕️
~ समाप्त ~

