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sunayna mishra

Abstract

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sunayna mishra

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एक औरत की ज़िंदगी

एक औरत की ज़िंदगी

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एक औरत की जिंदगी,

ईश्वर की मानो बंदगी।

बरसों पाषाण बनकर भी जो,

जरा सा परस पा जी उठी।


कभी सीता ,तो कभी सती,

हर रूप में युगों तक तपी।

फिर भी जीवन की लौ,

इसने न कभी बुझने दी।

एक औरत की जिंदगी।


सघन घाम में चलती जाती,

छांव ठिकाना कभी न पाती।

जीवन रण में थामे हौसला,

तलवारों पे दौड़ी भागी।

एक औरत की जिंदगी।


इसने जीवन की छाया सहेजी,

पीड़ा को इक भाषा दे दी।

माथे पर सिंदूर संजोये,

अनजाने साथी संग चल दी।

एक औरत की जिंदगी।


गंगा की धारा सी बहती,

अकथ कहानी क्षण में कहती।

अहसास समेटे प्रियवर के,

सपनों में किलकारी भर दी।

एक औरत की जिंदगी,

ईश्वर की मानो बंदगी।


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