एक और एक ग्यारह हो
एक और एक ग्यारह हो
वो मेरे दिल ओ ज़िगर का अरहान लगता है,
पास होता है जब वो तो बस आराम लगता है,
कितना मुश्किल है एक और एक ग्यारह हों,
ये तो मैं हूँ जिसे सब कुछ आसान लगता है,
फैलाके सीना अपना चौड़ा होके दिखाता जो,
वो अँधेरा भी पल दो पल में नाकाम लगता है,
खुशियों की एक मुददत यूँ गुजर जाने के बाद,
तो एक अद्ना सा मर्म भी अहज़ान लगता है,
इतना ज़हर घुल चुका है फ़िज़ा ऐ मेहमान में,
के दरवाज़े पर खड़ा हर शख्स बेईमान लगता है,
आवाज़ों से भरी हुई इस बड़ी सी दुनियां में,
जो खामोशी की जुबां सुन ले इंसान लगता है,
कुछ मिले तो अच्छा नहीं तो नुकसान लगता है,
नाम होकर भी ये राही तो बस अंजान लगता है।
